मैं ढूँढ रहा हूँ अपनों में अपनापन
मैं ढूँढ रहा हूँ अपनों में अपनापन
इंसान में इंसानियत आदमी में आदमियत
कि आज मानव से मानवता हो गई लापता!
मैं सोच नहीं पाता हूँ कि किसने की खता
मैं रहता मौन मैं करता नहीं किसी को फोन
मैं खोजता हूँ अपनों के बीच वैसा ही रिश्ता
जो बगैर फोन का बन जाया करता था फरिश्ता!
तब मानव का दिल इतना नहीं था घायल
मानव में इतनी संवेदना होती थी जीवित
कि आसानी से मिल जाता था हर मंजिल!
जब मोबाइल की ईजाद नहीं हुई थी
तब मानव की जिंदादिली गुमशुदा नहीं हुई थी
अब मोबाइल ने मन में भरी ऐसी पेचीदगी
कि अपनों में अपनापन नहीं सिर्फ दगा दगी!
मैं खोजता हूँ वैसा सगा
जिसने किसी रिश्ते को कभी नहीं ठगा
जो कभी देते नहीं किसी को दगा
कि मैं भी हूँ कुछ ऐसी ही किस्म का अभागा!
आज फिर चाहिए वैसा इंसानी कारिंदा
जो बगैर फोन के भी रह सके जिंदा
मैं तलाशता हू उन पहले जैसे संबंधों को
जो संबंध निभाए या नहीं निभाए
पर खुद के बचाव मे दूसरे की न करे निंदा!
जो नेकनीयत सीधा साधा हो बंदा
जो गलत किए पर हो सके शर्मिंदा
जो करता नहीं गलत-सलत गोरख धंधा
जो समझे नहीं भले आदमी को गंदा
और पापी आदमी को कह सके दरिंदा!
मैं चाहता सबको मिले संबंधी वैसा
जो चले कंधे से मिला कर कंधा
जो संबंध को समझे नहीं बंधन फंदा!
मैं खोजता हूँ उन बड़ों को
जो छोटे को आशीर्वाद देना गए नहीं भूल
मैं खोजता हूँ उन छोटे को
जो बड़े से आशीष लेने का भूला नहीं उसूल!
अब खोजने से भी क्या फायदे वो रिश्ते
जो जानबूझ कर हो गए बेगाने
आज आदमी आदत से हो गए हैं मजबूर
ये मोबाइल रिश्ते का हो गया भस्मासुर!
ले देकर आठोयाम एक ही रह गया काम
दूसरे के भले बुरे विचारों का आदान प्रदान
अपना कुछ नहीं योगदान
बड़े मतलबी हुए आदमी बदल गया इंसान!
हर चीज मौजूद है इस मोबाइल में
मगर कुछ भी संवेदना नहीं है दिल में
अब किसी का घर नहीं आना जाना
अब झूठ फरेब का जमाना बहाना ही बहाना!
न्योता विजय लितहार सब मोबाइल से यार
एक पैसे का खर्चा नहीं सुख दुख की चर्चा नहीं
सब रील बनाने और चैटिंग में रहते मशगूल
अपनों के प्रति कर्तव्य निभाना अब नहीं कबूल!
- विनय कुमार विनायक