भक्तिकाल का सामान्य परिचय | भक्तिकाल की प्रमुख काव्य धाराएं
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण काल है जो 13वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। इस काल में रचित साहित्य मुख्य रूप से भक्ति भावना से ओतप्रोत है। भक्तों ने ईश्वर के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को विभिन्न भावों और भाषा शैलियों में व्यक्त किया।भक्तिकाल का उदय भारत में सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में हुआ। तुर्की आक्रमणों, जाति-प्रथा, छुआछूत जैसी कुरीतियों और कर्मकांडों के प्रभाव से जनमानस में निराशा थी। ऐसे समय में भक्ति आंदोलन ने लोगों को एक नई आशा और दिशा प्रदान की।
हिन्दी साहित्य में जब भक्तिकाल का आरम्भ हुआ उस समय देश में चारों तरफ अशान्ति और अव्यवस्था थी। राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में उथल-पुथल मची हुई थी। देश पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था और वे यहाँ के शासक भी बन बैठे थे किन्तु अभी तक वे देश को सुव्यव- स्थित नहीं कर पाये थे । हिन्दू, मुसलमानों को अपना शत्रु समझ रहे थे और मुसलमान, हिन्दुओं को अपने आश्रित । फलतः दोनों जातियों के बीच भेद-भाव और वैमनस्य की गहरी खाई बनती जा रही थी। मुसलमान दिल खोलकर हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे थे और असहाय हिन्दुओं को सिवाय भगवान् की शरण के और कहीं आश्रय दिखाई नहीं देता था। भगवान् की कृपा के सम्बन्ध में उनका विश्वास दृढ़तर हो रहा था । वे सोचते थे कि जिसने ग्राह से गज की रक्षा की, वह अवश्य हमारे करुण क्रन्दन को सुनेगा। आचार्य शुक्ल का मत है कि इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप भक्तिकाल का आविर्भाव हुआ। वे लिखते हैं-'इतने भारी राजनीतिक उलट-फेर के पीछे हिन्दू जन-समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान् की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ।”
बहुत दिनों तक हिन्दी-साहित्य में यही मान्यता प्रचलित रही किन्तु बहुत से विद्वान् इस मत से सहमत नहीं हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस मत का प्रबल तर्कों के साथ खण्डन करके यह सिद्ध किया है कि भक्तिकाल का आविर्भाव असहाय जनता की भावनाओं की प्रतिक्रिया मात्र नहीं, बल्कि दक्षिण में भक्ति का जो स्रोत अबाध गति से प्रवाहित था, वही अवसर पाकर उत्तर भारत में पल्लवित और पुष्पित हो गया। इनका यह भी कहना है कि अगर भक्ति निराश और असहाय जनता के मन की प्रतिक्रिया होती तो पहले उसे उत्तरी भारत में उत्पन्न होना चाहिए था, किन्तु हुई वह दक्षिण में ।
अतः यह निभ्रांत कहा जा सकता है कि भक्ति-आन्दोलन परिस्थितियों की, अचानक बिजली की चमक के समान फेल जाने वाली, प्रतिक्रिया होती तो इसके लिए सेकड़ों वर्षों से ये मेघ खण्ड एकत्र हो रहे थे और वे एकाएक चौदहवी-पन्द्रहवी शताब्दी में आकर शास्त्र सिद्ध आचायों का आधार पा गये। उत्तर भारत में, जनसाधारण में, पौराणिक विश्वासों के रूप में धर्म-भावना विद्यमान थी जो इस काल में अनायास बैष्णव आचार्यों के द्वारा प्रसारित हुई और देखते-देखते उत्तरी भारत में फल गई। कबीर ने भी इस बात का समर्थन किया है-
भक्ती द्राविड़ ऊपभी. लायो रामानन्द ।
परगट किया कबीर ने, सप्तदीप नवखण्ड ॥
अन्ततः कहा जा सकता है कि भक्ति की जो भावना दक्षिण में चिरकाल से विद्यमान थी, वही पस्थितियों का सहारा पाकर उत्तर भारत में फैली ।
भक्ति काल की प्रमुख काव्य धाराएँ
भक्तिकाल में प्रमुख रूप से चार काव्य- बाराएँ प्रवाहित हुई जो निम्नलिखित हैं :-
1. निर्गुण सन्तों की ज्ञानाश्रयी काव्यधारा ।
2. सूफी कवियों की प्रेमाश्रयो काव्यधारा ।
3. कृष्ण भक्तों की कृष्ण-भक्ति काव्यधारा ।
4. राम भक्तों की राम भक्ति काव्यधारा ।
निर्गुण सन्तों की ज्ञानाश्रयी काव्यधारा
इस धारा के कवि भगवान् के निराकार रूप के उपासक है। भारतीय वेदान्त दर्शन का इन पर गहरा प्रभाव है। इसलिए आत्मा और परमात्मा में इन कवियों ने अद्वेत सम्बन्ध स्थापित किया है। इन भक्तों की मान्यता है कि जिस प्रकार घट का आवरण होने से पानी में घड़े का पानी पृथक-पृथक रहता है और उस आवरण की समाप्ति पर पुनः एकाकार हो बाता है, उसी प्रकार शरीर का आवरण हट जाने पर आत्मा-परमात्मा का विलय हो बाता है। कबीर ने लिखा है-
"जल में कुंभ कुंभ में जल है,
भीतर बाहर पानी ।
फूटा कुंभ बल-वर्णादि समाना,
यह तत्व कथ्यौ गियानी ।"
नाथ और सिद्धों का प्रभाव भी इस
काव्यधारा पर स्पष्ट दिखाई देता है। साथ ही सूफियों की प्रेम की पौर और माधुर्य-भावना का भी इन पर प्रभाव है। कबीर इस धारा के प्रवर्तक माने जाते हैं।
सूफी कवियों की प्रेमाश्रयी काव्यधारा
इस धारा में माधुर्य-भावना की प्रधानता है। सूफीमत की काव्यमयी अभिव्यक्ति हो इसका ध्येय है। प्रेम की पीर श्री बगाकर ही परमात्मा से मिलन हो सकता है, यही इनके मत का आधार है। इन्होंने हिन्दू कथानकों को लेकर काव्य-बद्ध किया है। मलिक मुहम्मद जायसी इस धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि है।
कृष्ण भक्तों की कृष्ण भक्ति काव्यधारा
यह सगुण धारा है। इसमें भगवान् के साकार रूप को ही ग्रहण किया गया है। निराकार, निरालम्ब इसमें ग्राह्य नहीं। इन कवियों ने श्रीकृष्ण के केवल रूप-माधुर्य का ही अवलोकन किया है।इसलिए वात्सल्य और विशेषतः शृङ्गार का ही वर्णन इस काव्यधारा में उपलब्ध होता है। कवियों का सम्बन्ध अपने आराध्य के प्रति केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं, सखा का भी है। सूरदास इस धारा के ख्याति प्राप्त कवि हैं ।
राम भक्तों की राम भक्ति काव्यधारा
इस धारा में राम को आराध्य मानकर सगुण रूप की आराधना की गई है। इस धारा के कवि मर्यादावादी और आदर्शवादी हैं । कृष्ण-भक्त लोक-कल्याण से आँखें मूंद कर केवल अपने आप में ही केन्द्रित हैं। उनके आगे भक्त और भगवान् के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अन्य धारा के कवियों में लोकपक्ष का अभाव है । ऐसी भावना इस धारा के कवियों में नहीं मिलती। इनका काव्य 'स्वान्तः सुखाय' होकर भी 'परान्तः सुखाय' किंवा 'लोक हिताय' है। धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय भावना इस काव्यधारा की प्रमुख विशेषता है। लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास इस धारा के मूर्द्धन्य कवि हैं।
इस प्रकार , भक्तिकाल ने हिंदी साहित्य और समाज को गहराई से प्रभावित किया। इस काल के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम, भक्ति, आध्यात्मिकता और सामाजिक सद्भाव का संदेश दिया। आज भी भक्तिकालीन साहित्य प्रासंगिक है और लोगों को प्रेरणा प्रदान करता है।
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का एक रत्न है। इस काल के कवियों ने अपनी अमूल्य रचनाओं के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध किया है।
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