पूस की रात कहानी का सारांश | Poos Ki Raat Story Summary

पूस की रात कहानी का सारांश | Poos Ki Raat Story Summary


पूस की रात प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक अत्यंत मार्मिक कहानी है। यह कहानी एक गरीब किसान, हल्कू, और उसकी पत्नी, मुन्नी, की कठिन जीवन स्थितियों को चित्रित करती है। यह कहानी हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण रचना है। यह कहानी गरीबों की दयनीय स्थिति और समाज में मौजूद असमानता पर प्रकाश डालती है। यह हमें मानवीय संवेदनाओं और करुणा के महत्व के बारे में भी सोचने पर मजबूर करती है।

हल्कू एक निर्धन अभावग्रस्त भारतीय किसान है। वह जमींदार से लगान पर खेत लेकर खेती करता है। दो सदस्यों वाले परिवार को अपना गुजर-बसर करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। हल्कू की पत्नी मुन्नी घरेलू खर्चों में कतर ब्योंत करती है ताकि माघ-पूस की रातों में शीत से बचने की समस्या, कम्बल खरीदकर, सुलझा ली जाय। उसके पति हल्कू को ठण्ड-भरी रात में खेत की रखवाली करनी पड़ती है। अतः वे दोनों कम्बल खरीदने के लिए तीन रुपये एकत्र करते हैं। इसी बीच एक दिन बकाया मालगुजारी वसूल करने के लिए जमींदार का कारिन्दा सहना आ धमकता है । सहना को दरवाजे पर देखकर हल्कू चिन्तित हो जाता है- 'पूस सिर पर आ गया, बिना कम्बल के हार में वह किसी तरह नहीं सो सकता । मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमायेगा, गालियाँ देगा ।" हल्कू अपनी कृषक मर्यादा को समझाता है । अतः वह जाड़े की मार सह लेना बेहतर समझता है और बकाया लगान चुका कर सिर से बला टाल देना चाहता है। वह अपनी पत्नी के पास, कम्बल खरीदने के लिए रखे गये तीन रुपयों को माँगने के लिए आता है। प्रारम्भ में उसकी पत्नी विरोध करती है, पर अन्त में वह भी परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देती है तथा ताक पर रखे तीन रुपयों को पति के हाथ पर रख देती है। हल्कू सहना के हाथ में तीन रुपये उसी प्रकार से रखता है जैसे अपना कलेजा ही निकाल कर सहना के हाथ पर रख रहा हो।
 
पूस की रात कहानी का सारांश | Poos Ki Raat Story Summary
हड्डी कँपा देनेवाली सर्दी के साथ पूस का महीना आ जाता है। हल्कू के पास एक पुरानी गाढ़े की चादर है। वह उसी चादर को लेकर खेत पर चला जाता है। लेकिन उससे बाड़े की रात काटना मुश्किल है। ठण्ड के कारण हल्कू कभी इस करवट लेटता है तो कभी उस करवट, पर नींद नहीं आती। उसके साथ उसका कुत्ता जबरा भी है, जो पेट में मुँह डाले सर्दी से कू-कू कर रहा है। कुत्ते की इस दशा पर हल्कू के हृदय में दया भाव उमड़ आता है। हल्कू कुत्ते की ठण्डी पीठ सहलाता है और उसे अपनी गोंद में सुला लेता है। दोनों ही एक दूसरे से सटकर थोड़ी गर्मी और राहत का अनुभव करते हैं। कुत्ते के शरीर से दुर्गन्ध आ रही है फिर भी वह उसे अपनी गोद से चिपकाये ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीने भर से उसे नहीं मिला था। जबरा शायद समझ रहा था कि स्वर्ग यही है और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गन्ध तक न थी। तभी जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। हल्कू के लाख पुकारने पर भी जबरा उठकर अंधकार में बिलीन हो गया। हल्कू की उस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठण्डे झोकों को भी तुच्छ समझती थी। जबरा हार में चारों तरफ दौड़कर भू कता रहा। एक के लिए आ भी जाता तो तुरन्त फिर दौड़ पड़ता । कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की तरह मचल रहा था।
 
पूस की रात ने ठण्डी पछुआ हवा के तीर छोड़ने शुरू किये। शीत का प्रभाव बढ़ता जाता है। शरीर का रक्त जमता जा रहा है। हल्कू ठण्ड की मार से बचने के लिए घुटनों को छाती से मिला कर सिर को उसमें छिपा लेता है, फिर भी ठण्ड कम नहीं होती। वह झुक कर आकाश की ओर देखता है तथा उसे लगता है कि अभी पहर भर से ऊपर रात बाकी है। हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। हल्कू गड्ढे से आग निकाल कर जबरा के साथ उस अमराई में आता है तथा सूखी पत्तियाँ बटोर कर आग लगा देता है। पत्तियाँ जलने लगती है। अंधकार के उस अनन्त सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता-मचलता हुआ जान पड़ता है। अलाव की गर्मी से हल्कू को आराम मिलता है और वह अपने कुत्ते के साथ अलाव की आग बुझने के बाद भी उसकी राख के पास बैठा हुआ गर्माहट की अनुभूति करता रहता है। हवा अपना प्रभाव क्रमशः बढ़ती हुई ठण्ड के रूप में दिखलाती है। शीत बढ़ने के साथ-साथ हल्कू को आलस्य दबोच रहा था। इसी बीच उसके खेत में नीलगायों का झुण्ड घुसता है तथा खेत चरने लगता है। जबरा अलाव की गर्मी का मोह त्यागकर भू कता हुआ, नीलगायों के झुण्ड के पीछे भागता है। नीलगायों के उछलने-कूदने तथा खेत चरने की आवाज से हल्कू समझ जाता है कि खेत में जानवर घुसे हैं। पर उन जानवरों के पीछे दौड़ना उसे असह्य लगता है और वह अपनी जगह से हिलता-डोलता तक नहीं ।
 
जबरा बराबर गला फाड़कर भू कता रहता है, पर हल्कू अलाव की राख के पास शांत बैठा रहता है। नीलगायें खेत को साफ करने में जुटी रहती हैं। हल्कू को आलस्य इस कदर जकड़े रहता है कि वह उसके बन्धन से मुक्त होना चाह कर भी निर्बंध नहीं हो पाता तथा उसी गर्म राख के पास, नंगी जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो जाता है।
 
सबेरा होने पर मुन्नी आकर अपने पति हल्कू को जगाती है। उसे खेत के चरे जाने का दुस्संवाद देती है। हल्कू अपने सो जाने का कारण पेट का दर्द बतलाता है। दोनों खेत की सीमा पर जाते हैं। रौंदे खेत को देखकर मुन्नी के मुख पर उदासी छा जाती है, पर हल्कू प्रसन्न है, क्योंकि उसे हार में अब सोना तो नहीं पड़ेगा। 

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