तुलसीदास के राम : आदर्श चरित्र या सामाजिक चेतना के प्रतीक

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तुलसीदास के राम : आदर्श चरित्र या सामाजिक चेतना के प्रतीक


हिन्दी साहित्य के आदि कवि गोस्वामी तुलसीदास ने सोलहवीं शताब्दी में ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना करके न केवल भक्ति-साहित्य को अमर शिखर प्रदान किया, अपितु भारतीय समाज को एक ऐसा चरित्र दिया जो सदियों से पूज्य भी रहा और विवादास्पद भी। वह चरित्र है भगवान राम का। प्रश्न सदैव उठता रहा है कि तुलसीदास का राम क्या वास्तव में वह ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ है जिसे अंधानुकरण करना चाहिए, या वह उस कालखंड की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का सजग प्रतीक मात्र है जिसने तत्कालीन हिन्दू समाज को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया। वास्तव में यह द्वंद्व ही तुलसी के राम को कालजयी बनाता है; वे एक साथ ईश्वरीय अवतार भी हैं और मनुष्य जैसे दुःख-सुख सहने वाले पुत्र, भाई, पति तथा राजा भी।

तुलसीदास के राम : आदर्श चरित्र या सामाजिक चेतना के प्रतीक
जब हम रामचरितमानस को श्रद्धा-भाव से पढ़ते हैं, तब राम का चरित्र एक असंभव आदर्श बनकर सामने आता है। पिता की आज्ञा में चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करना, पत्नी के अपहरण पर समस्त संसार को चुनौती देना किंतु क्रोध या विद्रोह का एक शब्द भी न बोलना, शबरी के जूठे बेर चाखना, केवट के चरण धोने देना, वानर-भालुओं को अपना मानकर उनके साथ मैत्री करना – ये सब प्रसंग राम को मानवीय सीमाओं से परे ले जाते हैं। तुलसी ने उन्हें इस प्रकार गढ़ा है कि वे देवता कम और आदर्श पुरुष अधिक लगते हैं। बालकाण्ड से लेकर उत्तरकाण्ड तक हर कांड में राम का चरित्र इतना निर्मल, संयमित और उदात्त है कि साधारण मनुष्य के लिए उसका अनुकरण कठिन ही नहीं, असंभव-सा प्रतीत होता है। यही कारण है कि लाखों भक्त आज भी राम को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करते हैं और उनके चरित्र को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं।किंतु जैसे ही हम ऐतिहासिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उतरते हैं, तुलसी का राम एकदम भिन्न अर्थ ग्रहण करने लगता है। 

सोलहवीं शताब्दी का उत्तर भारत मुगल साम्राज्य के प्रारंभिक दौर में था। हिन्दू समाज भीतर से खोखला हो चुका था। जातिवाद चरम पर था, क्षत्रिय शक्ति-हीन हो चुके थे, ब्राह्मण वर्चस्व बचाने में लगे थे, और आम जनता करुणा, समता तथा एक नए नैतिक आधार की तलाश में थी। तुलसीदास स्वयं ब्राह्मण थे, फिर भी उन्होंने राम को क्षत्रिय राजा बनाया और उस राजा को निषादराज गुह, केवट, शबरी, वानर-सेना जैसे समाज के सबसे निचले समझे जाने वाले वर्गों का सहारा लेते दिखाया। यह कोई साहित्यिक संयोग नहीं था। यह उस काल की सामाजिक चेतना का सचेत प्रतिफलन था जिसमें हिन्दू समाज को एकजुट करने की अनिवार्यता थी। राम का चरित्र तुलसी ने इस कुशलता से रचा कि वह हर जाति, हर वर्ग के लिए स्वीकार्य हो सके। नीच समझे जाने वाले लोगों से मैत्री, उनका सम्मान – यह संदेश उस समय क्रांतिकारी था।राम का ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ होना भी अपने समय का सशक्त सामाजिक संदेश था। उस युग में राजा भोग-विलास और अत्याचार के पर्याय बन चुके थे। तुलसी ने राम के माध्यम से एक ऐसे राजा की कल्पना प्रस्तुत की जो प्रजा को पुत्रवत् समझे, जो धर्म के नाम पर अन्याय न करे, जो स्त्री के प्रति भी संयम और सम्मान का व्यवहार रखे। राम-लक्ष्मण का प्रेम, भरत का राज्य-त्याग, राम का सीता के प्रति एकनिष्ठ भाव – ये सब केवल व्यक्तिगत गुण नहीं हैं; ये उस समाज को एक नया पारिवारिक और सामाजिक आदर्श प्रदान करते हैं जिसमें भाई-भाई में प्रेम हो, पति-पत्नी में विश्वास हो, राजा-प्रजा में पुत्र-पिता सा संबंध हो।

तुलसी ने राम को देवता कम और मनुष्य अधिक बनाया ताकि आम जन अपने भीतर राम को खोज सके और समाज एक नए नैतिक आधार पर पुनर्जीवित हो सके।तथापि, तुलसी का राम पूर्णतः क्रांतिकारी भी नहीं है। सीता का अग्नि-परीक्षा और उत्तरकाण्ड में उनका त्याग आज के पाठक को गहरी पीड़ा देते हैं। यह पितृसत्तात्मक समाज की कठोरता का चित्रण है। किंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि तुलसी सोलहवीं शताब्दी के कवि थे। उन्होंने समाज को एक ऐसा आदर्श देना था जो स्वीकार्य भी हो और उसे ऊपर भी उठाए। सीता-त्याग का प्रसंग राम का व्यक्तिगत निर्णय कम और राजधर्म का कठोर चेहरा अधिक है। तुलसी यहाँ व्यक्ति की मर्यादा से ऊपर राज्य की मर्यादा को रखते हैं। यह उस काल की राजनीतिक चेतना का सटीक चित्र है। यह आज अन्यायपूर्ण लगे, पर तुलसी के लिए यह एक आवश्यक समझौता था – समाज को एकजुट रखने और उसे उच्च नैतिकता की ओर ले जाने का समझौता।

अतः तुलसीदास का राम न तो केवल एक असंभव आदर्श चरित्र है और न ही मात्र सामाजिक चेतना का यांत्रिक प्रतीक। वह दोनों हैं और दोनों से परे भी। वह एक महान कवि की वह सृष्टि है जिसने अपने समय के दुःख, संघर्ष, आशा और विश्वास को ईश्वर के रूप में ढाल दिया। भक्त उसमें ईश्वर देखता है, समाज-सुधारक उसमें क्रांतिकारी संदेश, और साहित्य-विद्यार्थी उसमें एक अद्वितीय चरित्र-चित्रण। यही कारण है कि आज भी रामचरितमानस की हर पंक्ति जीवंत है और तुलसी का राम भारतीय चेतना के केंद्र में अडिग खड़ा है। वह न कभी पूर्णतः आदर्श बन सका और न कभी पूर्णतः मनुष्य; इसी बीच की जगह ने उसे अमर बना दिया।

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