गिग इकॉनमी (Gig Economy): श्रमिकों के अधिकार और बदलता रोज़गार परिदृश्य
गिग इकॉनमी आज की दुनिया का सबसे तेज़ी से फैलता हुआ रोज़गार मॉडल है। यह वह अर्थव्यवस्था है जिसमें नौकरी नहीं, बल्कि “टास्क” मिलता है – एक डिलीवरी, एक राइड, एक फ्रीलांस प्रोजेक्ट, एक माइक्रोटास्क। यहाँ कोई स्थायी नियोक्ता नहीं होता, कोई फिक्स्ड सैलरी नहीं होती, कोई पीएफ नहीं, कोई मेडिकल इंश्योरेंस नहीं, कोई पेड लीव नहीं। बस एक ऐप होता है जो आपको काम देता है और आप जब चाहें लॉग-इन कर लें, जब चाहें लॉग-ऑफ कर लें। स्वतंत्रता का यह नशा शुरू में बहुत लुभाता है, पर जब शाम को थककर घर लौटते हो और पता चलता है कि आज की कमाई से किराया भी पूरा नहीं होगा, तो वही स्वतंत्रता बोझ लगने लगती है।
भारत में गिग इकॉनमी ने पिछले आठ-दस सालों में जो रूप लिया है, वह दुनिया में सबसे विशाल और सबसे असुरक्षित दोनों है। एक अनुमान के अनुसार 2025 के अंत तक भारत में लगभग डेढ़ से दो करोड़ लोग किसी न किसी प्लेटफॉर्म के लिए गिग वर्क कर रहे होंगे – ओला-उबर के ड्राइवर, स्विगी-ज़ोमैटो के डिलीवरी पार्टनर, अर्बन कंपनी के प्लंबर-इलेक्ट्रीशियन, फाइवर-अपवर्क के फ्रीलांसर, यहां तक कि मीशो और ग्लोरोड जैसी रीसेलिंग ऐप की महिलाएँ भी। ये सारे लोग कागज़ पर “पार्टनर” हैं, “उद्यमी” हैं, लेकिन हक़ीक़त में ये आज के ज़माने के मजदूर हैं जिनके पास मज़दूर होने का कोई कानूनी प्रमाण-पत्र तक नहीं है।सबसे बड़ी विडंबना यही है कि जिस तकनीक ने इन्हें काम दिया, वही तकनीक इनके सारे अधिकार छीन भी ले रही है।
ऐप आपको रेटिंग देता है, ग्राहक आपको रेटिंग देता है, और आपकी रोज़ी-रोटी पाँच सितारों पर टिकी रहती है। एक खराब रेटिंग और आपका अकाउंट डी-एक्टिवेट। कोई अपील की प्रक्रिया नहीं, कोई यूनियन नहीं, कोई नोटिस पीरियड नहीं। आप रातों-रात बेरोज़गार हो सकते हो, बिना किसी को जवाबदेही के। डिलीवरी ब्वॉय बारिश में भीगता है तो भीगता है, उसका कोई बीमा नहीं। दुर्घटना हो जाए तो प्लेटफॉर्म कहता है – “हम तो सिर्फ़ मार्केटप्लेस हैं, आप तो स्वतंत्र ठेकेदार हो।” उबर का ड्राइवर चौदह-चौदह घंटे गाड़ी चलाता है क्योंकि बेसिक इनसेंटिव पूरा करने के लिए इतने घंटे चाहिए, पर श्रम कानून की नज़र में वह “ओवरटाइम” भी नहीं कर रहा क्योंकि वह कर्मचारी ही नहीं है।महिला श्रमिकों की स्थिति और भी दयनीय है। घर से बीयूटिशियन का काम करने वाली लाखों महिलाएँ अर्बन कंपनी जैसी ऐप पर हैं। ये घरों में अकेले जाती हैं, देर रात तक काम करती हैं, लेकिन कोई सुरक्षा गारंटी नहीं। शिकायत करो तो रेटिंग गिरेगी, काम बंद हो जाएगा। ग्राहक छेड़खानी करे तो प्लेटफॉर्म का जवाब होता है – “हमने तो बैकग्राउंड चेक कर लिया था।” इसी तरह रीसेलिंग ऐप पर काम करने वाली गृहिणियाँ महीने के अंत में देखती हैं कि कंपनी ने कमीशन का नियम रातों-रात बदल दिया और सारी मेहनत पर पानी फिर गया।फिर भी यह इकॉनमी बढ़ रही है क्योंकि इसके पीछे दो बहुत ताकतवर ताकतें हैं – पूँजी और बेरोज़गारी।जब स्थायी नौकरियाँ पैदा नहीं हो रही हैं, जब हर साल बारहवीं पास करने वाले युवाओं की संख्या करोड़ों में है और सरकारी नौकरियाँ हज़ारों में, तो गिग काम एकमात्र रास्ता बचता है। दूसरी तरफ़ पूँजी के लिए यह स्वर्ग है – कोई फिक्स्ड कॉस्ट नहीं, कोई लीव लायबिलिटी नहीं, कोई पेंशन का बोझ नहीं। बस ऐप चलाओ, कमीशन काटो, बाकी जो बच जाए मजदूर की मेहनत। लाभ का सारा हिस्सा निवेशकों का, जोखिम का सारा बोझ श्रमिक का।दुनिया भर में अब इस अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ें उठ रही हैं। ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट ने उबर को कहा कि उसके ड्राइवर “वर्कर” हैं, कर्मचारी हैं। कैलिफोर्निया में प्रोपोज़िशन-22 को भारी विरोध के बाद भी पास तो कर लिया गया, पर लड़ाई जारी है। स्पेन ने डिलीवरी वालों को कर्मचारी का दर्जा दे दिया।
भारत में अभी कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020 में गिग वर्कर्स का ज़िक्र तो है, लेकिन परिभाषा इतनी ढीली है कि प्लेटफॉर्म आसानी से बच निकलते हैं। अब भी अधिकांश गिग वर्कर सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर हैं।सच यह है कि गिग इकॉनमी को रोकना न संभव है, न वांछनीय। यह भविष्य का रोज़गार मॉडल है। लेकिन इसे जंगल राज नहीं बनने देना होगा। जरूरत इस बात की है कि हम एक नया श्रम कानून बनाएँ जो यह मानता हो कि भले ही संबंध “रोज़गार का” न हो, लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपनी मेहनत से प्लेटफॉर्म को लाभ पहुँचा रहा है, तो उसे न्यूनतम मज़दूरी, दुर्घटना बीमा, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन योगदान और यूनियन बनाने का अधिकार मिलना ही चाहिए।
प्लेटफॉर्म को पारदर्शी अल्गोरिदम दिखाना होगा, मनमाने डी-एक्टिवेशन पर रोक लगनी होगी, और एक ट्राइपार्टाइट बोर्ड (सरकार-श्रमिक-प्लेटफॉर्म) बनना होगा जो विवाद सुलझाए।अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो आने वाला भारत दो हिस्सों में बँट जाएगा – एक बहुत छोटा सा तकनीकी और वित्तीय अभिजात वर्ग, और बाकी एक विशाल, असुरक्षित, थका-हारा गिग श्रमिक वर्ग जो दिन-रात ऐप की घंटी बजने के इंतज़ार में जी रहा होगा। स्वतंत्रता का सपना सच होगा, लेकिन वह स्वतंत्रता गुलामी का नया नाम होगी। यह तय करना आज हमारा है कि गिग इकॉनमी आने वाले समय का सबसे क्रूर शोषण बनेगी या सबसे समावेशी अवसर। जवाब हमारे कानूनों में, हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति में और सबसे ज़्यादा हमारे विवेक में छिपा है।
