ड्राइवरलेस कार (Driverless Cars): भारतीय सड़कों पर संभावनाएँ और जोखिम
भारत की सड़कें एक जीवंत, अराजक और लगभग अविश्वसनीय दुनिया हैं। यहाँ गायें अचानक रुकती हैं, रिक्शे बिना इंडिकेटर के मुड़ते हैं, स्कूली वैन बीच सड़क पर बच्चों को उतारती है, मोटरसाइकिलें तीन-तीन सवारियों के साथ लेन बदलती रहती हैं, और ट्रक वाले कभी-कभी रिवर्स में ही दस किलोमीटर चल देते हैं। इसी कैओस के बीच अब हम ड्राइवरलेस कारों की बात कर रहे हैं – वे चमचमाती, सेंसरों से लैस, कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाली गाड़ियाँ जो बिना किसी इंसान के स्टियरिंग छुए सैकड़ों किलोमीटर चल सकती हैं। क्या ये भारतीय सड़कों पर वरदान साबित होंगी या एक महँगा सपना टूटने की कहानी लिखेंगी?सबसे पहले संभावनाओं की बात करें तो स्वायत्त वाहनों का सबसे बड़ा वादा है – सड़क दुर्घटनाओं में भारी कमी। भारत में हर साल डेढ़ लाख से ज़्यादा लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इनमें से नब्बे प्रतिशत से अधिक हादसे मानवीय गलती की वजह से होते हैं – स्पीडिंग, शराब पीकर गाड़ी चलाना, नींद आना, मोबाइल पर बात करना।
एक ड्राइवरलेस कार थकती नहीं, नशे में नहीं होती, न ही इंस्टाग्राम रील देखते हुए गाड़ी चलाती है। अगर यह तकनीक सही से लागू हो जाए तो सड़क पर होने वाली मौतों का बड़ा हिस्सा अपने आप कम हो सकता है। दूसरे, ट्रैफिक जाम की समस्या। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहरों में लोग रोज़ घंटों ट्रैफिक में फँसकर अपनी ज़िंदगी के साल खो देते हैं। ड्राइवरलेस कारें आपस में बात कर सकती हैं, एक-दूसरे से दूरी का सटीक अंदाज़ा रख सकती हैं, और ट्रैफिक सिग्नल के साथ भी समन्वय कर सकती हैं। इससे गाड़ियाँ एकदम करीने से, बिना रुके-ठहरे, लगातार चलती रहेंगी। तीसरा फायदा ईंधन की बचत और प्रदूषण में कमी। ये गाड़ियाँ हमेशा सबसे कुशल गति और रास्ते का चुनाव करती हैं, अनावश्यक ब्रेक-एक्सीलरेटर नहीं मारतीं। चौथा, उन लाखों लोगों के लिए रोज़गार का नया अवसर जो आज ड्राइवर हैं – टैक्सी, ट्रक, ऑटो चलाते हैं। लंबे समय में ये लोग रिमोट ऑपरेटर, फ्लीट मैनेजर, डेटा एनालिस्ट या मेंटेनेंस इंजीनियर बन सकते हैं। और सबसे ज़रूरी – बुजुर्गों, दिव्यांगों और जिनके पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है, उनके लिए स्वतंत्र यात्रा का सपना साकार हो सकता है।लेकिन ये सारी संभावनाएँ कागज़ पर जितनी सुंदर लगती हैं, भारतीय सड़कों पर उतनी ही मुश्किल हैं। सबसे बड़ी चुनौती है हमारी सड़कों की स्थिति ही। गड्ढों से भरी सड़कें, बिना मार्किंग की लेन, अचानक आने वाले स्पीड ब्रेकर जिनके बारे में किसी को पता नहीं होता, और बारिश में डूब जाना – ये सब ड्राइवरलेस कारों के सेंसर और एल्गोरिदम के लिए पहेली हैं।अमेरिका या सिंगापुर की सड़कों पर ये गाड़ियाँ परफेक्ट चलती हैं क्योंकि वहाँ सबकुछ व्यवस्थित है, लेकिन यहाँ एक गाय के बच्चे (काफ) को पहचानना और यह तय करना कि वह रुकेगा या दौड़ेगा, कोई आसान काम नहीं। दूसरे, हमारे ट्रैफिक नियमों का पालन। यहाँ रेड लाइट पर भी लोग धीरे-धीरे क्रॉस कर लेते हैं, इंडिकेटर देना तो जैसे अपराध है, और रॉंग साइड चलना सामान्य बात। एक ड्राइवरलेस कार जो सख्ती से नियमों का पालन करेगी, वह ट्रैफिक में फँसकर रह जाएगी क्योंकि बाकी लोग नियम तोड़कर आगे निकल जाएँगे। तीसरा, साइबर सुरक्षा का खतरा। अगर कोई हैकर कार के सिस्टम में घुस गया तो वह सैकड़ों गाड़ियों को एक साथ कंट्रोल कर सकता है – दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक साथ पचास कारें रुक जाएँ या स्पीड पकड़ लें, तो क्या होगा? चौथा, कानूनी और नैतिक सवाल। अगर दुर्घटना हो गई तो ज़िम्मेदार कौन – कार बनाने वाली कंपनी, सॉफ्टवेयर डेवलपर, मालिक या कोई और? पाँचवाँ, सबसे बड़ा सवाल – रोज़गार का। भारत में करीब ढाई-तीन करोड़ लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ड्राइविंग से जुड़े हैं। अगर दस-पंद्रह साल में टैक्सी, ट्रक, बस सब ड्राइवरलेस हो गए तो इन लोगों का क्या होगा? सरकार के पास इतने बड़े स्तर पर पुनर्वास की कोई योजना अभी दिखाई नहीं देती।फिर भी उम्मीद बाकी है। भारत सरकार ने 2022 में ही ड्राइवरलेस वाहनों के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिए थे और कई राज्य अब टेस्टिंग की अनुमति दे रहे हैं। टाटा, महिंद्रा, ओला इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियाँ इस दिशा में काम कर रही हैं।
बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों में बंद परिसरों में परीक्षण शुरू हो चुके हैं। अगर हम धीरे-धीरे शुरू करें – पहले हाईवे पर, फिर एक्सप्रेसवे पर, फिर चुनिंदा शहरों के कुछ रूट पर – और साथ ही सड़कें, मार्किंग, सिग्नल और ट्रैफिक नियमों को भी आधुनिक बनाएँ, तो यह तकनीक वरदान बन सकती है। ज़रूरत है धैर्य की, ढाँचागत सुधार की और यह समझने की कि ड्राइवरलेस कार कोई जादू की छड़ी नहीं है जो एक झटके में सारी समस्याएँ हल कर देगी।अंत में यही कहा जा सकता है कि भारतीय सड़कों पर ड्राइवरलेस कारों का भविष्य न पूरी तरह गुलाबी है, न पूरी तरह काला। यह एक लंबी, कठिन और खर्चीली यात्रा होगी जिसमें तकनीक को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालना पड़ेगा, न कि भारतीय परिस्थितियों को तकनीक के अनुसार बदलने की कोशिश करनी पड़ेगी। अगर हम यह संतुलन बना सके तो शायद वह दिन दूर नहीं जब सुबह-सुबह चाय की चुस्की लेते हुए हम अपनी कार से ऑफिस पहुँच जाएँ और रास्ते में एक भी गाली न देनी पड़े – न किसी को सुननी पड़े। लेकिन तब तक, सीट बेल्ट बाँधे रखिए, क्योंकि अभी भी सड़क पर इंसान ही राजा है – और गाय।
