वो बस कोशिश करती हैं
स्त्री और बस कोशिश
इल्ज़ाम लगा जब सीता पर,
क्यों विश्वास राम का विवश हुआ?
हां! कोशिश की थी स्त्री ने।
कि चरित्र पवित्र है उसका!
अग्निपरीक्षा भी दी स्त्री ने।
जिससे दुःसासन का दुस्साहस हुआ!
वो उस भरी सभा में चीखती रही,
जहां उसकी अस्मिता को घायल किया।
भरी सभा में चीर- हरण,
बड़ा असह्य था उसके लिए।
तब भी सम्मान की रक्षा हेतु,
आवाज उठाई थी स्त्री ने।
हां! कोशिश की थी स्त्री ने;
पर घुल गई वो आवाज सभा में,
जो निकल रही उन चीखों से।
और व्यर्थ हुई अग्निपरीक्षा की लपटें,
जो बुझी अविश्वास के झोंको से।
हां! कोशिश की थी स्त्री ने।
क्यों आवाज दबाई जाती है,
और अविश्वास जताया जाता है।
वो भी तो रुक नहीं सकती थी,
चाहती तो झुक नहीं सकती थी,
बस कोशिश की थी स्त्री ने।
पर इतिहास के पन्नों में स्त्री,
उस लज्जित सभा- सी नहीं होतीं।
संकीर्ण विचारों से चरित्र तौलने वाली,
उस असभ्य प्रजा सी नहीं होतीं।
वो बस कोशिश करती हैं।
- श्रेया दुबे
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