अनुवाद कला की चुनौतियाँ संस्कृति और भाषा के बीच सेतु

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अनुवाद कला की चुनौतियाँ संस्कृति और भाषा के बीच सेतु

नुवाद कोई यांत्रिक कार्य नहीं है, यह एक जीवंत कला है जो दो संस्कृतियों के बीच संवाद का सबसे नाजुक और सबसे शक्तिशाली माध्यम बनती है। जब कोई रचनाकार अपनी भाषा में कुछ कहता है तो वह केवल शब्द नहीं चुनता, वह अपने पूरे सांस्कृतिक परिवेश को, अपने समय की गंध को, अपने समाज की चुप्पियों को, अपने बचपन की ध्वनियों को शब्दों में पिरोता है। अनुवादक का काम इन सारी परतों को उठाकर दूसरी भाषा के ताने-बाने में इस तरह बुनना होता है कि नया कपड़ा न केवल पहचान में आए, बल्कि उसकी अपनी चमक और अपनी बनावट भी रखे। यही अनुवाद की सबसे बड़ी चुनौती है कि वह न तो मूल को छिपाए और न ही नई भाषा को जबरन बोझ तले दबाए।

अनुवाद कला की चुनौतियाँ संस्कृति और भाषा के बीच सेतु
हर भाषा अपने भीतर एक पूरा विश्व लिए होती है। हिंदी में “नमस्ते” कहने के पीछे जो हाथ जोड़ने का भाव है, जो सिर झुकाने की विनम्रता है, उसे अंग्रेजी में “hello” या “hi” कहकर पूरी तरह नहीं पकड़ा जा सकता। ठीक वैसे ही जापानी में “इत्तदाकिमासु” भोजन से पहले कहा जाता है, जिसका अर्थ है “मैं विनम्रता से यह ग्रहण करता हूँ” और इसके पीछे खाद्य पदार्थों के प्रति कृतज्ञता और प्रकृति के प्रति आदर का पूरा दर्शन छिपा है। कोई शाब्दिक अनुवाद इसे जीवंत नहीं रख पाता। अनुवादक को तय करना पड़ता है कि वह इस सांस्कृतिक अंतर को कैसे पार करेगा—क्या वह पाठ में फुटनोट डालेगा, क्या वह परिवेश से समझाएगा, या क्या वह मूल भाव को ही दूसरी भाषा में नया रूप देगा? हर विकल्प में कुछ खोता है और कुछ बचता है।साहित्य में यह चुनौती और गहरी हो जाती है। कविता तो जैसे अनुवाद के लिए अभिशप्त ही है। कबीर के दोहे की वह ध्वनि, वह लय, वह साधारण शब्दों में छिपी गहरी आध्यात्मिकता जब अंग्रेजी में जाती है तो अक्सर केवल विचार बचता है, संगीत खो जाता है। गालिब की गजलों का दर्द, उनकी तहजीब, उनकी शराब और इश्क की बातें जब दूसरी भाषा में पहुँचती हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई फूल सूखकर हर्बेरियम में रख दिया गया हो—रंग-रूप तो वही, पर सुगंध चली गई। 

अनुवादक को तय करना पड़ता है कि वह लय को बचाए या अर्थ को, छंद को या भाव को। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद अपनी गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया था और नोबेल पुरस्कार भी मिला, पर बंगाली जानने वाले आज भी कहते हैं कि मूल की वह लय, वह तरलता अनुवाद में नहीं आई। यह अनुवाद की विडंबना है कि कभी-कभी लेखक खुद अपने ही सृजन को दूसरी भाषा में पूरा न्याय नहीं दे पाता।उपन्यासों में भी यही संकट है। मार्केज की एक हज़ार साल की तन्हाई में जो जादुई यथार्थवाद है, वह स्पेनिश भाषा के वाक्य-विन्यास, उसके लंबे-लंबे बहते वाक्यों, उसके समय और स्थान को एक साथ घोल देने के ढंग से पैदा होता है। जब वह अंग्रेजी में आता है तो जादू थोड़ा कम हो जाता है, क्योंकि अंग्रेजी की संक्षिप्तता और स्पष्टता उस धुंध को बनाए नहीं रख पाती। प्रेमचंद की गोदान में गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, होरी के पाँवों की छालों की पीड़ा, धनिया की गालियों का रस—इन सबको अंग्रेजी में लाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि अंग्रेजी में देहाती गाली का भी एक शहरी शिष्टाचार आ जाता है। अनुवादक को तय करना पड़ता है कि वह पाठक को मूल की दुनिया में ले जाए या अपनी भाषा की दुनिया में उसे ढाल दे। दोनों ही रास्तों पर नुकसान होता है।फिर सांस्कृतिक संदर्भों का प्रश्न है।

कुरान या गीता या बाइबिल का अनुवाद करते समय अनुवादक के कंधों पर सिर्फ भाषा का नहीं, पूरे विश्वास का बोझ होता है। एक शब्द बदलने से अर्थ का अपभ्रंश हो सकता है, लाखों लोगों की आस्था डोल सकती है। पश्चिमी अनुवादकों ने रामायण और महाभारत का अनुवाद करते समय कई बार भारतीय नारी को पश्चिमी नजरिए से देखा और सीता को दबी-कुचली स्त्री दिखाया, जबकि भारतीय परंपरा में सीता की शक्ति और उसकी अग्निपरीक्षा का अर्थ कुछ और ही है। अनुवाद यहाँ सिर्फ भाषा नहीं, सांस्कृतिक दृष्टि का भी प्रश्न बन जाता है।समय भी अनुवाद की राह में बड़ा रोड़ा है। भाषाएँ जीती-जागती होती हैं, बदलती रहती हैं। आज की हिंदी और प्रेमचंद की हिंदी में बहुत फर्क है। शेक्सपियर की अंग्रेजी आज के पाठक के लिए पुरानी लगती है। जब हम पुराने ग्रंथों का आधुनिक भाषा में अनुवाद करते हैं तो एक खतरा यह होता है कि हम उन्हें आज की समझ से रंग देते हैं और मूल का समय खो जाता है। पर यदि हम पुरानी भाषा में ही अनुवाद करें तो नया पाठक दूर हो जाता है। अनुवादक को हमेशा दो समय के बीच झूलना पड़ता है।फिर भी, अनुवाद असंभव नहीं है। वह एक तरह का पुनर्जन्म है। हर अच्छा अनुवाद मूल को मारता नहीं, उसे दूसरी भाषा में नया जीवन देता है।

अज्ञेय ने कविता लिखी थी—“अनुवाद करो तो जैसे कोई प्रेमी प्रेमिका की सारी बातें दूसरी भाषा में कहे, कुछ खोता जरूर है, पर जो बचता है वह भी कम मूल्यवान नहीं होता।” अच्छा अनुवादक वही है जो यह जानता हो कि वह कितना खो रहा है और फिर भी हार न माने। वह मूल का गद्दार नहीं, उसका सबसे वफादार दुश्मन होता है—जो उससे लड़ता है, उसे तोड़ता-जोड़ता है, और अंत में उसे नई जमीन पर खड़ा कर देता है।इसलिए अनुवाद कला की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह दो असंभव के बीच संभव की तलाश करता है—दो भाषाओं, दो संस्कृतियों, दो समयों और दो संवेदनाओं के बीच वह एक सेतु बनाता है जो न पूरी तरह मूल रहता है, न पूरी तरह नया बन पाता है। पर यही उसकी सुंदरता भी है। जैसे प्रेम में पूर्ण मिलन कभी नहीं होता, बस निकटता बढ़ती जाती है, वैसे ही अनुवाद में भी पूर्ण समानता कभी नहीं आती, बस दो दुनिया एक-दूसरे के करीब आती जाती हैं। और इसी करीब आने में सारी सृष्टि का सौंदर्य छिपा है।

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