लड़कियों के लिए शादी नहीं शिक्षा जरूरी है
नकोदेसर गांव की रेत भरी पगडंडी पर दस साल की रेखा हाथ में पुरानी किताबें थामे स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी। उसके चेहरे पर मासूम चमक थी लेकिन मन में एक अनकहा डर भी। माँ ने जाते-जाते उसे याद दिलाया कि लौटकर उसे पानी भी भरना है और छोटे भाई को संभालना भी है। रेखा चाहती थी कि उसकी पढ़ाई पूरी हो, वह भी शहर की लड़कियों की तरह डॉक्टर या अध्यापिका बने, लेकिन उसकी दादी का कहना था कि “लड़की को इतना पढ़ाने की क्या ज़रूरत है, आखिरकार उसे तो घर ही संभालना है।” दादी के ये शब्द अक्सर रेखा के सपनों को तोड़ देते हैं। यह हकीकत नकोदेसर गांव की किसी एक लड़की की नहीं है, बल्कि यहाँ की कई किशोरियाँ इस कड़वी हकीकत से रोज गुजरती हैं।
राजस्थान आज भी देश के उन राज्यों में शामिल है जहाँ लड़कियों की शिक्षा को लेकर नकारात्मक सोच गहराई से जमी हुई है। परिवारों की मान्यताएँ इस दिशा में बड़ी बाधा बनती हैं। आज भी बहुत से माता-पिता मानते हैं कि उच्च शिक्षा में समय और धन लगाने की बजाय लड़की को कम उम्र में ही विवाह कर देना बेहतर है। राजस्थान के बीकानेर जिला स्थित लूणकरणसर तहसील के नकोदेसर गांव में कुल आबादी लगभग 1,511 है और इसमें महिलाओं की साक्षरता दर केवल 46.02 प्रतिशत है जबकि पुरुषों की दर 65.43 प्रतिशत तक पहुँचती है।
ये आँकड़े अपने आप में यह बताते हैं कि लड़कियाँ शिक्षा से किस हद तक वंचित हैं। गाँव के कई घरों में लड़कियों की प्राथमिक शिक्षा तो हो जाती है, लेकिन जैसे-जैसे वे किशोरावस्था में पहुँचती हैं, पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है। कारण एक नहीं, बल्कि कई हैं। गरीबी, स्कूल की दूरी, सुरक्षित परिवहन का अभाव, और सबसे बड़ा कारण, समाज की सोच। इस गाँव के बुजुर्ग अक्सर कहते मिलते हैं कि “लड़की का असली घर उसका ससुराल है, पढ़ाई का बोझ क्यों दिया जाए।” यही सोच लड़कियों के सपनों को अधूरा कर देती है। कुछ परिवारों में यह डर भी रहता है कि पढ़ी-लिखी लड़की विवाह में कठिनाई खड़ी कर देगी, क्योंकि दूल्हे वाले उनसे ऊँची अपेक्षाएँ करेंगे।
नकोदेसर की यह तस्वीर पूरे राजस्थान के परिदृश्य से बहुत अलग नहीं है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार राजस्थान में 24.5 प्रतिशत महिलाएँ, जिनकी उम्र 20 से 24 वर्ष के बीच है, उनका विवाह 18 वर्ष से पहले हो चुका था। इसका सीधा मतलब है कि हर चार में से एक युवती को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ी। हालाँकि पिछले वर्षों में सुधार भी हुआ है। 2005-06 में जहाँ बाल विवाह की दर करीब 47 प्रतिशत थी, वही 2015-16 तक घटकर 27 प्रतिशत रह गई। यह गिरावट कई सरकारी योजनाओं, सामाजिक अभियानों और शिक्षा के महत्व की बढ़ती समझ का नतीजा है। लेकिन यह कमी अभी भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि लगभग हर चौथी लड़की शिक्षा की जगह विवाह के मंडप में पहुँचा दी जाती है।
गाँव के भीतर यह सोच साफ दिखाई देता है कि लड़कियों को शिक्षा दिलाना अक्सर “खर्च” माना जाता है। लड़के को पढ़ाना निवेश समझा जाता है, क्योंकि वह भविष्य में परिवार का सहारा बनेगा, जबकि लड़की शादी के बाद दूसरे घर चली जाएगी। आर्थिक तंगी से जूझते परिवारों में प्राथमिकता बेटे की पढ़ाई होती है। सुरक्षा का मुद्दा भी कम अहम नहीं। दूर दराज के गाँवों में जब स्कूल कई किलोमीटर दूर हो और परिवहन की सुविधा न हो तो परिवार लड़कियों को भेजने से हिचकते हैं। इसके अलावा किशोरावस्था में पहुँचते ही परिवारों को डर होता है कि “लड़की बाहर जाएगी तो बदनामी हो सकती है।” ऐसे में सबसे आसान उपाय उन्हें घर में रोक लेना और जल्दी शादी कर देना समझा जाता है।
इसके बावजूद हालात पूरी तरह निराशाजनक नहीं हैं। गाँव के कुछ परिवारों ने साहस दिखाया है। उदाहरण के लिए नकोदेसर की दो बहनों ने दसवीं तक पढ़ाई पूरी कर अब कॉलेज में दाखिला लिया है। उनका कहना है कि उन्होंने कई बार विरोध का सामना किया, लेकिन पिता ने उनके साथ खड़े होकर समाज की परवाह न की। ऐसे छोटे-छोटे उदाहरण उम्मीद जगाते हैं। सरकारी योजनाएँ जैसे “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ”, और माध्यमिक शिक्षा में छात्रवृत्ति योजनाओं ने भी असर दिखाया है। स्कूलों में अलग से लड़कियों के शौचालय बनाए गए, जिससे उपस्थिति बढ़ी है। लेकिन इन योजनाओं का असर तब तक सीमित रहेगा जब तक परिवार की सोच नहीं बदलेगी।
शिक्षा केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि पूरी पीढ़ियों पर असर डालती है। अध्ययनों से यह साफ हो चुका है कि जिन महिलाओं ने स्कूलिंग पूरी की, वे अपनी बेटियों को भी स्कूल भेजने की संभावना ज्यादा रखती हैं। शिक्षा पाई हुई लड़की शादी में देर से जाती है, उसका स्वास्थ्य बेहतर होता है और वह परिवार की आर्थिक स्थिति में भी योगदान करती है। नकोदेसर जैसी जगहों पर यदि अधिक लड़कियाँ पढ़ पातीं तो वहाँ की सामाजिक-आर्थिक तस्वीर काफी बदल सकती थी। ऐसे में समाज को यह समझना होगा कि लड़की की शिक्षा केवल परिवार का दायित्व नहीं बल्कि पूरे समुदाय का भविष्य है।
यदि नकोदेसर जैसे गाँवों में एक भी लड़की डॉक्टर, अध्यापिका या अधिकारी बनती है तो उसका असर बाकी परिवारों पर पड़ता है। उसके सफल होने से यह धारणा टूटेगी कि “लड़की पढ़कर कुछ हासिल नहीं कर सकती।” समाज को बदलने में समय लगता है, पर बदलाव की शुरुआत छोटे कदमों से ही होती है। जैसे ही परिवार अपनी बेटियों को पढ़ने देते हैं, जैसे ही वे समझते हैं कि यह बोझ नहीं बल्कि शक्ति है, तभी नई सुबह की नींव रखी जाएगी। यह केवल आँकड़ों की बात नहीं, बल्कि जीवन की हकीकत है। वे रोज अपने सपनों और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करती हैं। राजस्थान में बालिका शिक्षा और बाल विवाह के आँकड़े यह दिखाते हैं कि स्थिति बदल रही है लेकिन रफ्तार धीमी है। अब जरूरत है कि परिवार, समाज और सरकार मिलकर यह मान लें कि शिक्षा प्राप्त करना हर लड़की का मौलिक अधिकार है। अगर यह सोच हर घर तक पहुँच सके तो नकोदेसर ही नहीं, पूरा राजस्थान नई दिशा पा सकता है।(यह लेखिका के निजी विचार हैं)
- अदा,
लूणकरणसर, राजस्थान