क्यों लड़कियों को ही स्कूल पहुँचने में चुनौतियां आती हैं?
शिक्षा हर किसी के लिए जरूरी है। लेकिन लड़कियों और विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र की किशोरियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। उनके लिए सबसे बड़ा सवाल सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि सुरक्षित और सहज शिक्षा तक पहुँच का होता है। यह सफ़र उनके लिए बहुत आसान नहीं होता है, क्योंकि गाँवों में शिक्षा से जुड़ी कई समस्याएं हैं जिनसे हर रोज़ उन्हें गुजरना पड़ता है। यह समस्या मुख्य रूप से स्कूल तक पहुँचने का लंबा रास्ता, परिवहन की कमी, कभी बारिश तो कभी तेज धूप जैसी प्राकृतिक मुश्किलें लड़कियों के लिए बड़ी रुकावट बन जाती हैं। ऐसी चुनौतियां देश के किसी एक राज्य के ग्रामीण क्षेत्र की नहीं है, बल्कि सभी जगह ऐसी ही स्थिति देखने को मिल जाती है। राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों भी लड़कियों को इन्हीं तरह की चुनौतियों से हर दिन गुजरना पड़ता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि केंद्र और राज्य सरकार के प्रयास से राजस्थान में स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या पिछले एक दशक में बढ़ी है, लेकिन अभी भी चैलेंजेज़ बहुत गहरी हैं। राष्ट्रीय शिक्षा सर्वेक्षण (यू-डायस प्लस, 2021-22) के अनुसार, राजस्थान में माध्यमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन अनुपात लगभग 78% है, जबकि उच्च माध्यमिक स्तर पर यह घटकर 53% रह जाता है। यह गिरावट साफ दिखाती है कि पढ़ाई की राह में सामाजिक और भौतिक दोनों तरह की बाधाएं मौजूद हैं। बात अगर बीकानेर जिला की करें तो आँकड़े इस सच्चाई को और स्पष्ट करते हैं। वर्ष 2022 की जिला वार्षिक शैक्षिक प्रगति रिपोर्ट के अनुसार, बीकानेर के ग्रामीण इलाकों में लगभग 12% लड़कियां आठवीं कक्षा तक पहुँचने के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। मुख्य कारण घर से स्कूल की दूरी, परिवहन का अभाव और परिवार की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ बताई जाती हैं। इन परिस्थितियों में शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताबों और कक्षाओं तक सीमित नहीं रह जाती है, बल्कि यह सवाल बन जाता है कि एक लड़की कितनी स्वतंत्रता और समानता के साथ आगे बढ़ सकती है?
जब किशोरियाँ रोज़ अपने गाँव से स्कूल तक जाती हैं तो वह सिर्फ किताबों का बोझ ही नहीं उठाती हैं, बल्कि सुरक्षा, सुविधा और सामाजिक अपेक्षाओं का बोझ भी उठाती हैं। राजस्थान के शिक्षा विभाग की 2021 की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि राज्य के 35% सरकारी स्कूलों में अभी भी शौचालय की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह स्थिति खासकर लड़कियों की उपस्थिति पर गहरा असर डालती है। बीकानेर के ग्रामीण क्षेत्रों के कई स्कूलों में लड़कियां केवल शौचालय न होने के कारण पीरियड्स के दिनों में स्कूल नहीं जातीं हैं।
यह आंकड़ा केवल बुनियादी सुविधा की कमी नहीं, बल्कि शिक्षा से लड़कियों को दूर धकेलने वाला एक मौन कारण भी है। इस मुद्दे को यदि मानवीय दृष्टिकोण से देखें तो यह समस्या सिर्फ अधूरी इमारतों या सुविधाओं की नहीं है, बल्कि यह लड़कियों के आत्मसम्मान, उनकी गरिमा और उनके सपनों से जुड़ी है। जब एक किशोरी को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ती है, तो वह केवल किताबें ही नहीं छोड़ती, बल्कि अपने भविष्य की संभावनाओं का भी एक हिस्सा पीछे छोड़ देती है। उसका सपना डॉक्टर, टीचर या अधिकारी बनने का अधूरा रह जाता है और उसकी दुनिया फिर से घरेलू जिम्मेदारियों में सीमित हो जाती है।
हकीकत यह है कि शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम नहीं है बल्कि समानता की दिशा में पहला कदम है। जब लड़कियाँ स्कूल तक नहीं पहुंच पाती, तो यह लैंगिक असमानता को और गहरा करता है। आँकड़े भी यही बताते हैं। राजस्थान की साक्षरता दर 2011 की जनगणना के अनुसार 66.1% थी, जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 80.5% और महिलाओं की मात्र 52.1% थी। बीकानेर जिले में भी यही असमानता दिखती है, जहाँ पुरुष साक्षरता दर 75.9% और महिला साक्षरता दर सिर्फ 49.4% है। यह अंतर इस बात का प्रमाण है कि लड़कियों की शिक्षा को लेकर आज भी समाज और व्यवस्था दोनों स्तरों पर पर्याप्त जागरूकता नहीं आई है।
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि केवल स्कूलों का निर्माण कर देने से समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं हो जाता है। जब तक बुनियादी ढांचा, सुरक्षित परिवहन, और सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आएगा, तब तक ग्रामीण किशोरियाँ शिक्षा के सपनों तक नहीं पहुँच पाएँगी। यहाँ एक और पहलू सामने आता है और वह है आर्थिक स्थिति। बीकानेर के लूणकरणसर ब्लॉक के कई गाँवों में, जहाँ खेतों में काम करना ही परिवार की आय का मुख्य साधन है, वहाँ लड़कियों की पढ़ाई अक्सर रुक जाती है। परिवार सोचता है कि जल्दी शादी कर देना ही समाधान है। लेकिन यह सोच उनके भविष्य को सीमित कर देती है।
अब सवाल है कि इसका समाधान कैसे हो? इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले सरकार को शिक्षा पर निवेश और बढ़ाना होगा। राजस्थान में 2023-24 के बजट में शिक्षा पर कुल खर्च राज्य की जीडीपी का लगभग 2.8% रहा है, जो कि अभी भी पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में खासकर लड़कियों के लिए सुरक्षित परिवहन, साइकिल योजना और स्कूलों में शौचालय जैसी सुविधाओं को प्राथमिकता देनी होगी। दूसरे, समाज को यह समझना होगा कि शिक्षा सिर्फ लड़कों के लिए नहीं, बल्कि लड़कियों के लिए भी उतनी ही जरूरी है। इसके लिए ग्रामीण स्तर पर सामुदायिक रूप से पहल करनी होगी। जिसमें पंचायत स्तर पर निगरानी, इस दिशा में बड़ा योगदान दे सकती हैं। जब समाज खुद यह जिम्मेदारी लेगा कि गांव की हर लड़की स्कूल जाएगी, तभी वास्तविक बदलाव आएगा। तीसरे, स्कूलों को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। शिक्षकों को संवेदनशील और लैंगिक समानता के प्रति जागरूक बनाना जरूरी है। कई बार लड़कियाँ स्कूल इसलिए भी छोड़ देती हैं क्योंकि वहाँ उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन नहीं मिलता है। यदि शिक्षक लड़कियों को बराबरी का माहौल देंगे, तो उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होंगी।
समाधान केवल नीतियों या योजनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सोच में बदलाव का सवाल है। जब हम यह मान लेंगे कि शिक्षा लड़कियों का भी उतना ही अधिकार है जितना लड़कों का, तभी इस समस्या का हल निकलेगा और यह बदलाव केवल सरकार या किसी संस्था से नहीं आएगा, बल्कि यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी से संभव होगा। शायद तब जाकर हम समाज में सभी के लिए बराबरी की बात को हकीकत में बदल पाएंगे।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)
- जशोदा,
लूणकरणसर, राजस्थान