रोजगार से ही महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकती है
हर सुबह की तरह नाथवाना गाँव की 27 वर्षीय किरण अपने छोटे से घर के आँगन में बैठी खाना पकाने की तैयारी कर रही है। वहीं बगल में उसके तीन छोटे बच्चे खेल रहे हैं। किरण रोजमर्रा के काम निपटाने के बाद खेतों में मजदूरी करने भी जाती है। पर मजदूरी से जो थोड़े पैसे मिलते, उनसे घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता। वह अक्सर सोचती कि काश गाँव में ही कोई ऐसा काम होता जिसे करके वह घर भी संभाल पाती और थोड़ा बेहतर जीवन भी जी पाती।
यह सिर्फ किसी एक किरण की कहानी नहीं है बल्कि उसकी जैसी असंख्य महिलाएँ राजस्थान के गाँवों में आज भी रोजगार के लिए संघर्ष कर रही हैं। उनकी मेहनत और जिम्मेदारियाँ बहुत हैं, लेकिन अवसर कम। जिन्हें अपनी कड़ी मेहनत के बावजूद श्रम का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। जिससे वह विकास की दौड़ में पिछड़ जाती हैं। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं के विकास का रास्ता रोजगार से होकर ही गुजरता है। जिससे न केवल उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलती है बल्कि उनका आत्म-सम्मान, निर्णय लेने की शक्ति और सामाजिक पहचान भी मजबूत होती है।
नाथवाना गाँव जैसे इलाकों में महिलाओं को रोज़गार से जोड़ना इसलिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि यहाँ की महिलाएँ अब भी परंपरागत सोच, संसाधनों की कमी और शिक्षा की सीमाओं से बंधी हुई हैं। जब उन्हें काम और कमाई का अवसर मिलेगा, तभी वे अपने बच्चों की पढ़ाई, पोषण और परिवार की खुशहाली में बराबरी का योगदान दे सकेंगी। आँकड़े बताते हैं कि राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में महिला श्रम-शक्ति की स्थिति मिश्रित है। "Periodic Labour Force Survey (PLFS)" के अनुसार, ग्रामीण राजस्थान में महिलाओं का श्रम भागीदारी दर (15 वर्ष और उससे अधिक आयु) राष्ट्रीय औसत से लगभग 10 प्रतिशत अधिक है। इसका मतलब यह है कि महिलाएं किसी न किसी रूप में काम कर रही हैं, परंतु यह काम ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र या कृषि मजदूरी तक सीमित है।
"Female Work Participation Rate in Rajasthan: Trends and Determinants" शीर्षक से हुए एक अध्ययन में बताया गया है कि लगभग 82 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ कृषि और खेतिहर मजदूरी में लगी हैं। यह काम अनिश्चित, कम वेतन वाला और सुरक्षा रहित होता है। यानी महिलाएँ मेहनत तो खूब करती हैं, पर उनका योगदान समाज और परिवार दोनों ही जगहों पर कम करके आंका जाता है। नाथवाना गाँव में भी तस्वीर लगभग ऐसी ही है। महिलाएं खेतों में काम करती हैं, पशुपालन करती हैं, घर और बच्चों की देखभाल करती हैं। परंतु इन्हें ‘रोज़गार’ नहीं माना जाता क्योंकि इन कामों के लिए नियमित आय या सम्मानजनक वेतन नहीं मिलता। यही वजह है कि वह आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर बनी रहती है। यदि इन्हें संगठित ढंग से स्वरोज़गार के अवसर, प्रशिक्षण और बाजार तक पहुँच मिले तो यह मेहनत एक उत्पादक और सम्मानजनक रोजगार में बदल सकती है।
रोजगार से जुड़ी यह कमी केवल आर्थिक पक्ष तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह सामाजिक ढांचे को भी प्रभावित करती है। एक महिला जो अपने पैरों पर खड़ी होती है, वह न केवल घर के खर्च उठाने में मदद करती है, बल्कि वह अपने बच्चों की पढ़ाई को प्राथमिकता देती है। एक सर्वे के अनुसार जब किसी परिवार में महिला आय अर्जित करती है तो उस परिवार में बालिकाओं के स्कूल जाने की संभावना 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। यही नहीं, परिवार का पोषण स्तर और स्वास्थ्य पर खर्च भी बढ़ता है। नाथवाना गाँव में 45 वर्षीय द्रौपदी कहती हैं कि अगर उन्हें सिलाई, बुनाई, कढ़ाई या डेयरी का प्रशिक्षण और छोटा-सा ऋण मिल जाए तो वे घर बैठकर भी कमाई कर सकती हैं। लेकिन आज भी प्रशिक्षण केंद्रों की दूरी, परिवहन की दिक्कतें और सामाजिक बंदिशें उन्हें पीछे खींच लेती हैं। एक और बाधा यह है कि समाज में महिला की भूमिका को अभी भी ‘घर तक सीमित’ मानने की सोच हावी है। यही कारण है कि शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद कई महिलाएं रोजगार तक नहीं पहुंच पातीं।
PLFS के आँकड़े बताते हैं कि राजस्थान में उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं का काम में शामिल होने का अनुपात केवल 22 प्रतिशत है। इसका साफ मतलब है कि शिक्षा बढ़ने के बाद भी रोजगार का रास्ता आसान नहीं होता, क्योंकि समाज और व्यवस्था दोनों ही स्तर पर समर्थन कम है। हालांकि जब नाथवाना की महिलाएँ रोजगार से जुड़ेंगी, तो यह केवल उनकी आय का सवाल नहीं होगा, बल्कि समाज में उनकी आवाज और अस्तित्व को मान्यता देने का सवाल होगा। आर्थिक स्वतंत्रता से वे घरेलू हिंसा, बाल विवाह और पितृसत्ता की अन्य जंजीरों से बाहर निकल सकेंगी। इसके लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करने होंगे।
स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को ऋण और बाज़ार से जोड़ना, कौशल विकास प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करना, और सरकार की योजनाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है। नरेगा जैसी योजनाओं में महिलाओं की सक्रिय हिस्सेदारी को और मजबूत करना चाहिए। इसके साथ ही सुरक्षित परिवहन, बाल देखभाल केंद्र और कार्यस्थल पर सम्मानजनक वातावरण जैसे कदम भी उठाने होंगे ताकि नाथवाना गाँव और ऐसे ही तमाम गाँवों में महिलाओं का भविष्य रोजगार से ही सुरक्षित होगा। किरण जैसी महिलाएँ अगर घर के साथ-साथ अपने हुनर से कमा सकेंगी, तो न केवल उनके परिवार का भविष्य बदलेगा बल्कि पूरा समाज भी आगे बढ़ेगा। जब महिलाएँ आर्थिक रूप से सशक्त होंगी तब समाज भी मजबूत होगा। (यह लेखिका के निजी विचार हैं)
- पूजा मेहरा
लूणकरणसर, राजस्थान