पंचशील समझौते का इतिहास और सिद्धांत

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पंचशील समझौते का इतिहास और सिद्धांत


पंचशील समझौता, जिसे पंचशील सिद्धांत या पंचशील नीति के रूप में भी जाना जाता है, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का एक महत्वपूर्ण आधार है। इसकी उत्पत्ति और विकास का इतिहास भारत और चीन के बीच 1954 में हुए एक ऐतिहासिक समझौते से जुड़ा है, जिसने न केवल दोनों देशों के बीच संबंधों को परिभाषित किया, बल्कि वैश्विक मंच पर शांति और सहयोग के लिए एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। पंचशील के सिद्धांत आज भी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और शांति स्थापना के संदर्भ में प्रासंगिक माने जाते हैं, हालांकि समय के साथ इनके कार्यान्वयन और प्रभाव को लेकर कई चर्चाएँ और विवाद भी सामने आए हैं।

पंचशील समझौते का इतिहास और सिद्धांत
पंचशील समझौते का इतिहास 1950 के दशक की भू-राजनीतिक परिस्थितियों में निहित है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो गुटों में बँट गया था—एक ओर संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश और दूसरी ओर सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमा। इस शीत युद्ध के दौर में कई नवस्वतंत्र देश, जिनमें भारत भी शामिल था, किसी भी गुट में शामिल होने से बचना चाहते थे। भारत, जिसने 1947 में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी, ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। इसी समय, चीन में 1949 में माओ ज़ेडॉन्ग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद नया शासन स्थापित हुआ था। दोनों देशों के बीच तिब्बत का मुद्दा एक संवेदनशील विषय था, क्योंकि भारत ने तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में स्वीकार किया था, लेकिन सीमा विवाद और व्यापारिक संबंधों को लेकर कुछ तनाव मौजूद थे।

इसी पृष्ठभूमि में, 29 अप्रैल 1954 को भारत और चीन के बीच "तिब्बत क्षेत्र के साथ व्यापार और संचार के लिए समझौता" हुआ, जिसके प्रस्तावना में पंचशील के पाँच सिद्धांतों को औपचारिक रूप से शामिल किया गया। इस समझौते पर भारत की ओर से जवाहरलाल नेहरू और चीन की ओर से चाउ एन-लाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंचशील शब्द संस्कृत के दो शब्दों—पंच (पाँच) और शील (नैतिक आचरण)—से मिलकर बना है, जो बौद्ध दर्शन से प्रेरित है। ये सिद्धांत मूल रूप से बुद्ध के नैतिक शिक्षाओं से लिए गए हैं, जिनमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और नैतिकता पर जोर दिया गया है।

पंचशील के सिद्धांत इस प्रकार हैं: पहला, एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक देश को दूसरे देश की सीमाओं और स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। दूसरा, एक-दूसरे पर आक्रमण न करना। यह सिद्धांत सैन्य आक्रामकता को रोकने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देने के लिए है। तीसरा, एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना। यह देशों को अपनी आंतरिक नीतियों और शासन व्यवस्था में स्वतंत्रता प्रदान करता है। चौथा, समानता और पारस्परिक लाभ के लिए सहयोग करना। यह सिद्धांत देशों के बीच आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग को प्रोत्साहित करता है। पाँचवाँ, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देना। यह सिद्धांत सभी सिद्धांतों का मूल है, जो विभिन्न विचारधाराओं और व्यवस्थाओं वाले देशों के बीच शांति और सहयोग की भावना को मजबूत करता है।

पंचशील समझौता केवल भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों तक सीमित नहीं रहा। 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में आयोजित एशिया-अफ्रीका सम्मेलन में इन सिद्धांतों को व्यापक रूप से अपनाया गया, जहाँ नवस्वतंत्र देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी। इस सम्मेलन में पंचशील को वैश्विक शांति और सहयोग के लिए एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया गया। नेहरू और चाउ एन-लाई ने इसे एक ऐसी नीति के रूप में प्रचारित किया, जो उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और शीत युद्ध की दो-ध्रुवीय राजनीति से मुक्त होकर विश्व शांति को बढ़ावा दे सकती थी।

हालांकि, पंचशील के सिद्धांतों का कार्यान्वयन हमेशा सहज नहीं रहा। 1950 के दशक के अंत तक भारत-चीन संबंधों में तनाव बढ़ने लगा, विशेष रूप से तिब्बत और सीमा विवादों को लेकर। 1962 में भारत-चीन युद्ध ने पंचशील की प्रभावशीलता पर सवाल उठाए, क्योंकि चीन द्वारा भारत की सीमा पर आक्रमण ने इन सिद्धांतों के उल्लंघन को उजागर किया। कई आलोचकों का मानना है कि पंचशील की नीति भारत के लिए आदर्शवादी थी और यह वास्तविक भू-राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने में अपर्याप्त साबित हुई। फिर भी, पंचशील का दार्शनिक आधार और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का विचार आज भी प्रासंगिक है, खासकर उन देशों के लिए जो सैन्य टकराव और गुटबाजी से बचना चाहते हैं।

पंचशील ने भारत की विदेश नीति को भी गहराई से प्रभावित किया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और वैश्विक मंचों पर भारत की शांतिपूर्ण छवि को मजबूत करने में इन सिद्धांतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी पंचशील के सिद्धांतों को शांति और सहयोग के लिए एक आदर्श माना गया। आज के दौर में, जब विश्व विभिन्न क्षेत्रीय और वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहा है, पंचशील का विचार एक बार फिर प्रासंगिक हो सकता है, बशर्ते इसे व्यावहारिक और यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ लागू किया जाए।

निष्कर्षतः, पंचशील समझौता न केवल भारत और चीन के बीच एक ऐतिहासिक कूटनीतिक प्रयास था, बल्कि यह वैश्विक शांति और सहयोग के लिए एक दर्शन भी प्रस्तुत करता है। इसके सिद्धांत, जो नैतिकता और शांति पर आधारित हैं, आज भी विश्व को एक बेहतर दिशा दिखाने की क्षमता रखते हैं, बशर्ते देश इनका पालन पूरी निष्ठा और पारस्परिक विश्वास के साथ करें।

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