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विज्ञान के युग में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं होनी चाहिए

विज्ञान के युग में अंधविश्वास की जगह नहीं


08 अप्रैल को लगने वाले सूर्य ग्रहण को लेकर खगोलशास्त्रियों में जहां उत्साह है तो वहीं परंपरा और मान्यताओं को प्राथमिकता देने वालों में बेचैनी भी है. हालांकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि करीब 50 साल बाद लंबी अवधि के लिए लगने वाला यह सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा, इसके बावजूद विज्ञान से अधिक रीति रिवाजों को मानने वाले इसे लेकर आशंकित हैं. जो पूरी तरह से तर्कहीन और अंधविश्वास पर आधारित होता है. शिक्षा और जागरूकता के अभाव में ऐसी तर्कों पर विश्वास करने वालों की एक बड़ी संख्या है. अधिकतर ऐसी मान्यताओं का पालन करने वाले देश के दूरदराज के गांवों में मिल जायेंगे. जहां न केवल चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के मुद्दे पर बल्कि महिलाओं और किशोरियों के माहवारी के मुद्दे पर भी कई प्रकार के अंधविश्वास देखने को मिलते हैं. इतना ही नहीं, इन क्षेत्रों में लोग बीमार पड़ने पर अपने परिजनों को डॉक्टर से इलाज कराने की जगह झाड़ फूंक करने वालों के पास ले जाते हैं लेकिन जब उस मरीज की हालत गंभीर हो जाती है तो फिर उसे अस्पताल ले जाते हैं.
विज्ञान के युग में अंधविश्वास की जगह नहीं

देश का दूर दराज ऐसा ही एक गाँव है पिंगलों. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक से करीब 20 किमी की दूरी पर बसा यह गांव आज भी अंधविश्वास की चपेट में है. पंचायत के आंकड़ों के अनुसार इस गांव की आबादी लगभग 1950 है. गांव में 85 प्रतिशत उच्च जातियों की संख्या है और 15 प्रतिशत निम्न जाति के लोग रहते हैं. वहीं साक्षरता की बात करें तो इस गाँव में महिला और पुरुष साक्षरता दर 50 प्रतिशत है. वह इसलिए है क्योंकि अब इस गाँव की किशोरियां पढ़ रही हैं. लेकिन इसके बावजूद गाँव में अंधविश्वास गहराई से अपनी जड़े जमाये हुए है. कक्षा 11 की छात्रा गुंजन बिष्ट कहती है कि "हम अपने घर में जब भी बीमार होते हैं तो हमारे घर में दादी सबसे पहले हमें देवी देवताओं के नाम की भभूति लगाती है. यह किस हद तक सही है मुझे भी नहीं पता, लेकिन हमें स्कूल में पढ़ाया जाता है कि जब भी हम बीमार हों तो हमें सबसे पहले डॉक्टर के पास जाकर इलाज करानी चाहिए."

गांव की एक 36 वर्षीय महिला उषा देवी कहती हैं कि ‘पिंगलों गांव में लोग झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं और तांत्रिकों को ज्यादा मानते हैं. अगर कोई बीमार होता है तो लोग झाड़-फूंक कराने उन्हीं के पास जाते हैं. अगर इसके बाद भी तबीयत ज्यादा बिगड़ जाए तब वह डॉक्टर के पास जाते हैं. ऐसे में कई बार बहुत देर भी हो चुकी होती है और मरीज की हालात और भी अधिक बिगड़ जाती है. जब डॉक्टरी इलाज की ज्यादा जरूरत होती है वह उन्हें समय पर नहीं मिल पाता है.’ गांव की एक अन्य महिला मंजू देवी कहती हैं कि ‘मैं जब भी बीमार होती हूं तो मेरे घर वाले मुझे बाबा के पास लेकर जाते हैं, जो मुझे पहले भभूति लगाता है और काला डोरा पहनाता है. लेकिन जब उससे कोई आराम नहीं मिलता है तो फिर मुझे डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं. इस देरी के कारण मेरे अंदर इतना कमजोरी आ जाती है कि मैं उठकर चल भी नहीं पाती हूं.’

मंजू की बातों का समर्थन करते हुए 30 वर्षीय पूजा देवी कहती हैं कि ‘यह बात सत्य है कि हमारे गांव में यदि किसी भी परिवार में कोई बीमार होता है तो उसको सबसे पहले डॉक्टर के पास न ले जाकर घर पर ही पूजा करवाई जाती है या फिर बाबा के पास लेकर जाते हैं. जिसमें काफी पैसा खर्च हो जाता है. पहले ही घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती है. जो पैसा होता है वह पूजा में लग जाता है. ऐसे में डॉक्टर के पास जाने के लिए फिर कुछ भी नहीं बच पाता है. आखिरकार परिवार कर्ज लेकर अस्पताल का चक्कर काटता है. यदि तांत्रिकों की जगह पहले ही अस्पताल ले जाया जाए तो जान और पैसा दोनों ही बच सकता है.’

अंधविश्वास पर गाँव की सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं कि “जब मैं पहली बार मां बनने जा रही थी और मेरा सातवां महीना चल रहा था. उस समय चंद्र ग्रहण लगा था. मेरे आस-पास के लोगों ने मेरी सास को बोला कि तुम्हारी बहू गर्भवती है, इसे चंद्र ग्रहण मत देखने देना, अन्यथा होने वाला बच्चा विकलांग पैदा होगा. परंतु मैं भी जिज्ञासा वश देखना चाहती थी कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है? जब रात में सभी सो गए तो मैने खिड़की खोलकर पूरा चंद्र ग्रहण देखा. फिर अगली सुबह मैंने यह बात अपनी सास और अन्य को बताई, तो सभी मुझ पर बहुत गुस्सा हुए और आशंकित हुए कि पता नहीं अब होने वाले बच्चे पर क्या असर होगा? दो महीने बाद जब डिलीवरी हुई तो मैंने स्वस्थ बेटी को जन्म दिया. इस तरह अंधविश्वास करने वालों के मुंह पर ताले लग गये."

नीलम कहती हैं कि ‘आज सब कुछ देखते हुए, समझते हुए और तर्क के आधार पर फैसला करने के बावजूद भी लोग अंधविश्वास के भयानक पिंजरे में कैद हैं. यह सदियों से चली आ रही एक भयानक बीमारी है. जिसका इलाज केवल जागरूकता और वैज्ञानिक कसौटी है. यह एक ऐसा रोग है, जिसने समाज की नींव खोखली कर दी है.’ वह कहती हैं कि ‘अंधविश्वास किसी जाति, समुदाय या वर्ग से संबंधित नहीं है बल्कि यह स्वयं के अंदर विद्यमान होता है. यह मनुष्य को आंतरिक स्तर पर कमजोर बनाता है. जिसके बाद इंसान ऐसी बातों पर विश्वास करने लगता है, जिनका कोई औचित्य नहीं होता है.

अंधविश्वास का सबसे नकारात्मक प्रभाव महिलाओं और किशोरियों के जीवन पर पड़ता है. जिन्हें सबसे पहले इसका निशाना बनाया जाता है. हमारा ग्रामीण समाज इस विकार से सबसे अधिक ग्रसित है. जिससे परिवर्तन और विकास संभव नहीं है. भारतीय समाज को इन्हीं अंधविश्वास ने कोसों पीछे छोड़ रखा है. आज भी कितने ही शिक्षित लोग हैं, जो किसी न किसी रूप में अंधविश्वास में जकड़े हुए हैं. यही कारण है कि हमारी विकास की गति इतनी धीमी है. चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के पीछे वैज्ञानिक कारणों को अनदेखा करके हम अंदर से भयभीत रहते हैं. जबकि हमें इसके प्रति संकुचित दृष्टिकोण रखने की अपेक्षा इसमें छिपे रहस्यों को जानना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ी इसका लाभ उठा कर विकास के नए प्रतिमान गढ़ सके. दरअसल विज्ञान के युग में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. (चरखा फीचर)



- संजना
चोरसौ, उत्तराखंड

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