जलवायु का राग समय का संदेश

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जलवायु का राग समय का संदेश


वा में गूंजती है एक पुकार अनघट,
पृथ्वी की सांसों में बस्ता है खट्टा रस।
धूप तपती है अब, जैसे क्रोधित अग्नि,
बादल बरसते नहीं, बस छोड़ते हैं तृष्णा।
 
जलवायु का राग समय का संदेश
नदियां जो गाती थीं जीवन का संगीत,
अब सिसक रही हैं, सूखा है उनका मीत।
हिमनद पिघल रहे, जैसे आंसुओं का मेला,
समुद्र उफन रहा, डूब रहा किनारा बेला।
  
जंगल जो थे धरती के हरे आलिंगन,
कट रहे बेरहम, छिन रहा प्राणों का संग।
पशु-पक्षी भटक रहे, खोया है उनका ठिकाना,
प्रकृति की गोद में अब बस धूल का माना।
  
मानव की लालच ने बुन दी यह कहानी,
प्रगति के नाम पर छेड़ दी प्रकृति की बानी।
कारखानों की चिमनियां उगल रही विष-धुआं,
हवा में घुल रहा है मृत्यु का सामान। 
 
क्या भूल गया तू, हे मानव, अपनी जड़ें?
यह धरती मां है, नहीं बस तेरा पड़ाव।
उसका हर पत्ता, हर बूंद, हर कण जीवंत,
तेरे बिना भी थी, रहेगी वह अनघट।
  
पर सुन, अभी समय है, जाग ले इस पल में,
प्रकृति के साथ चल, बंध जा उसकी थल में।
रोप दे बीज, बना दे हरियाला आंगन,
बचाले पानी, हवा, और जंगल का चंदन।
  
सूरज की किरणें फिर मुस्कुराएंगी जब,
पंछी गाएंगे, नदियां लौटेंगी तब।
बादल बरसेंगे, जीवन का राग सुनाएंगे,
धरती के बच्चे फिर सुख-चैन पाएंगे।
  
यह कविता नहीं, है एक चेतावनी सखी,
जलवायु का संकट है मानवता की लकी।
उठ, कर दे कर्म, जो बनाए भविष्य सुंदर,
प्रकृति के साथ जी, बन जा उसका संन्यासी पथिक


विश्लेषण और संदर्भ:
यह कविता जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को भावनात्मक और प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करती है, जो आज के समय में सबसे गंभीर वैश्विक चुनौतियों में से एक है। कविता में प्रकृति के विभिन्न तत्वों—हवा, नदियों, जंगलों, हिमनदों और समुद्र—का मानवीकरण किया गया है, ताकि पाठक उनके दर्द और संकट को गहराई से महसूस कर सकें। मानव की लालच और प्रगति की अंधी दौड़ को जलवायु परिवर्तन का मूल कारण बताया गया है, जो जीवाश्म ईंधन के उपयोग, जंगलों की कटाई और औद्योगीकरण जैसे वास्तविक कारकों की ओर इशारा करता है। साथ ही, कविता में आशा और जिम्मेदारी का संदेश भी है, जो पाठक को पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय कदम उठाने की प्रेरणा देता है।यह रचना पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाने के साथ-साथ सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता पर बल देती है।

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